भृगुक्षेत्र बलिया : जहाँ गंगा को जान्हवीं नाम मिला

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भृगुक्षेत्र बलिया : जहाँ गंगा को जान्हवीं नाम मिला ।

भृगुक्षेत्र बलिया मे ही गंगा नदी को जान्हवीं नाम मिला ।

         प्रकृति में पर्वत ,महासागर सभी के लिये मर्यादा निश्चित है । उसका उल्लंघन करने पर उसके महाबलशाली अहंकार को तोड़ने का भी प्रबंध है । 

            पतित पावनी गंगा नदी ने भी ऐसा ही एक अपराध किया था । जिसके लिए भृगुक्षेत्र बलिया के ऋषि जन्हु ने उन्हें मर्यादित किया था और यही से गंगा को जान्हवीं नाम मिला था ।

भृगुक्षेत्र बलिया

               कथानक के अनुसार ऋषि जन्हु विमुक्ति भूमि भृगुक्षेत्र ( बलिया ) मे वाजपेय यज्ञ कर रहे थे । जब गंगा नदी अत्यंत वेग से यहाँ पहुँची तो उनका यह छिन्न भिन्न हो गया , 99 वाजपेय यज्ञ कर चुके ऋषि जन्हु को क्रोध आ गया और उन्होंने गंगा की धारा को भृगुक्षेत्र मे सूख जाने का श्राप दे दिया था , इसके बाद महाराज भगीरथ ने ऋषि जन्हु से प्रार्थना की जिसके बाद गंगा नदी की धारा ने यहाँ से आगे गंगा सागर की ओर प्रस्थान किया था । 

इस घटना के बाद गंगा नदी का नाम जान्हवीं पड़ा था । आज भी भृगुक्षेत्र बलिया नगर के दक्षिण में गंगा नदी के किनारे जवंही नाम का गाँव है ।

              इस घटना के बाद कालांतर में महर्षि भृगु ने भृगुक्षेत्र बलिया मे गंगा नदी की जलधारा को समृद्ध करने के लिए अयोध्या से सरयू नदी की जलधारा को अयोध्या के कुलगुरु ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी से अपने शिष्य दर्दर मुनि के माध्यम से मंगवाया था , आज भी गंगा की जलधारा को सरयू नदी का जल भृगुक्षेत्र मे समृद्ध करता है । यहाँ इन दोनों नदियों का संगम होता है । यद्यपि कि सरयू नदी की मूलधारा वर्तमान समय में बलिया जिले की अंतिम सीमा पर घाघरा नदी के नाम से आकर मिलती है , सरयू नदी को घाघरा – घार्घरा नाम भी महर्षि भृगु ने ही दिया था ।

किन्तु आज भी भृगुआश्रम मे बूढ़ी सरयू – तमसा नदी के नाम से यहाँ गंगा नदी में मिलती है ।

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             भागीरथ का नाम हमारे देश के इतिहास के शिखर पुरुषों में इसलिए दर्ज है, की वे गंगा को इस धरती पर लाए, उस कार्य के लिए यानी गंगा इस धरा पर आए इसमें सफलता पाने के लिए भगीरथ ने अपना सम्पूर्ण जीवन आहूत कर दिया, जिसमें उन्हें सफलता मिल जाने के बाद उनके नाम के साथ दो चीजों ( शायद हमेशा के लिए ) जुड़ गई है, एक गंगा को उनके नाम पर भागीरथी नाम मिल गया, और दूसरा दुनिया मे हर उस प्रयास को, उस प्रयत्न को, उस कोशिश को भगीरथ प्रयास या भगीरथ प्रयत्न कहा जाने लग गया, जो प्रयास विपुल हो और जिसे किसी खास बड़े सार्वजनिक हित के लिए किया गया हो, तो सवाल उठता है कि, क्या अयोध्या के इक्ष्वाकु वंशी सम्राट भगीरथ से पहले गंगा इस धरती और नही थी ? 

           मंत्रों के प्रारंभिक रचियता चाहे वे स्वयं विश्वामित्र हो, शुन:शेप हो, दीर्घतमा मामतेय हो भरद्वाज हो सभी भारत के पूर्वी इलाको में पूर्वांचल में ही हुए और पश्चिम में खासकर सरस्वती, सिंधु और उनके आसपास की नदियों के और दक्षिण की नदियो के किनारे मंत्र रचनाएं बाद में हुई, पर ऋग्वेद के प्रारम्भिक मंत्रो में गंगा का नाम नही मिलता। गंगा और यमुना का नाम ऋग्वेद में एक मंत्र में आया है… इमं में गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्री स्तोतं सचता परुष्णया, असिवन्या मरुद्वृधे वितस्तयर्जीकीये श्रणुह्या सुषोमया ।

( ऋग्वेद १०.७५.५ ) और इस मंत्र में गंगा , यमुना, वितस्ता, परुष्णी, आसिक्नी, जैसी उत्तरभारत की सभी महत्वपूर्ण नदियों के नाम स्वभाविक रूप से दिए गए हैं, यह सूक्त प्रियमेद के पुत्र सिंधुक्षुत द्वारा रचित है, जो काफी नया  माना जाता है, इसके अलावा एक नदी सूक्त है, जिसमें गाथी के पुत्र विश्वामित्र ने नदियों के साथ एक शानदार संवाद मंत्रो के रूप में प्रस्तुत किया है, उसमे भी गंगा का संदर्भ में कोई संकेत नही है

कुछ विद्वान तो इसे भी बाद का सूक्त मानते हैं, पर इससे हमारी इस निष्कर्ष आशंका पर कोई असर नही पड़ता कि क्या जब मंत्र रचना हुई, तब गंगा इस भारत धरा पर मौजूद नही थी, पता नही पर भगीरथ के बाद लिखी गई वाल्मीकि रामायण को अगर प्रमाण मान लिया जाए और प्रमाण न मानने का कोई कारण हमारे पास नही तो कहना होगा कि गंगा को इस धरती पर भगीरथ ही लाए थे

और उनका यह प्रयास अयोध्या राजवंश की दस पीढ़ियों के सत्प्रयास का परिणाम था, जिनमें से भगीरथ के प्रयास सर्वाधिक विपुल, विराट और निर्णायक थे, गंगा जी के भारत धरा पर आने के बारे में जो विवरण वाल्मीकि रामायण में मिलता है ठीक वैसा विवरण थोड़ा संक्षेप में महाभारत में भी मिलता है, विष्णुपुराण में बेशक इस महती घटना की पूर्व भूमिका एक पूरे अध्याय ( ४४ ) में कहने के बाद भगीरथ प्रयास के इतिहास को एक ही गद्य श्लोक ( संख्या ३५ ) में समेट दिया है..दिलिपस्य भगीरथ: सोसौ गंगा स्वर्गादिहनिय संज्ञां चकार । 

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          अब थोड़ा घटनाक्रम को जान लिया जाए पूरी तरह से जान लिया जाए ताकि खरपतवारों को हटाकर फिर साफ सतह पर पहुँचा जा सके । भगीरथ और उनके पूर्वजों द्वारा गंगा जमीन पर लाई जाने के प्रयासों का सबसे पुरातन विवरण वाल्मीकि रामायण में मिलता है, जिसमें से  इतिहास की कोई पतली सी धारा फूटने के संकेत हो सकते है, वह गाथा इस प्रकार है…

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के यज्ञ में विघ्न पैदा करने वाले मरीच और सुबाहु का वध करने के बाद विश्वामित्र, श्री राम और लक्ष्मण को अपने साथ मिथिला के राजा जनक के  यहाँ प्रस्थान करते है…. मैथिलस्य नरश्रेष्ठ जनकस्य भवशयती, यज्ञ: परमधर्मिष्ठ: तत्र यस्यामहे वयम् ( वाल्मीकि रामायण बालकांड ३१.६ ) जब जनकपुर की और चले, जो आजकल बिहार की सीमापार करते ही नेपाल में है, तो पहले सोन नदी पार कर, फिर गंगा के किनारे आ गए। वहाँ विश्वमित्र गंगा की प्रशंसा करते हुए श्री राम लक्षण को गंगा का उद्भव बताते हुए कहते है।

              हे राम तुम्हारे ही एक पूर्वज राजा सगर के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा इंद्र ने चुराकर पाताल में कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया, तब सगर अपने साठ हजार पुत्रों को यज्ञ का घोड़ा ढूंढने के आदेश दिया, तब वे सभी साठ हजार भाई पृथ्वी के हर कोनों में उस घोङे को खोजते हुए पूर्वोत्तर की और कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचे,

जहाँ वे घोड़े को बंधा देख क्रोधित हो कपिल मुनी को अपशब्द कहने लगते है इससे क्रोधित हो कपिल मुनि उन सभी को अपनी योगाग्नि से भस्म कर देते है, और इसी घटना के साथ गंगा का इस धरा पर आना इसी राख को पवित्र कर पूर्वजों का उद्धार करने के उस वृहद संकल्प से जुड़ जाता है, जो सगर को पौत्र अंशुमान से लेकर भगीरथ ने लगातार सँजोया और आखिर भगीरथ के भागीरथ प्रयत्नों से पा लिया गया।

          कुल दस पीढ़ियों के प्रयास निरंतर थे, गंगा को धरा पर लाने में, और इस हिसाब से गंगा को भारतभूमि पर बहाने के प्रयास में तीन सदियों ( ३०० वर्षों तक ) तक अनवरत चलता रहा होगा। अगर वाल्मीकि रामायण, महाभारत और भगवत महापुराण की कथाओं को मिलकर पढ़े तो इन तमाम पीढ़ियों के कुछ राजाओं की तपस्या का लोमहर्षक विवरण मिलता है, इस बात के स्पष्ट हो जाने पर की गंगा जल के पवित्र स्पर्श से ही कपिल ऋषि की योगाग्नि से भस्म सगर पुत्रों का उद्धार हो सकता है

पहले अंशुमान ने फिर दिलीप ने और फिर भगीरथ ने गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के लिए भारी तप किया, इसमें राजा भगीरथ का परिश्रम अत्यंत कठिन रहा, पहले गंगा को पृथ्वी पर आने को मनाने के लिए तप किया, फिर शिव को मनाने को तप किया की वे गंगा को अपनी जटाजूट में समेटे

फिर उस गंगा को बाहर लाने को तप किया, जो शिव की जटाओं में कही जाकर छिप गई थी, जब-सब बाधाए दूर हो गई तो आगे-आगे भगीरथ का रथ दौड़ा और उस रथ के पीछे गंगा का मच्छ-मगर-कच्छ को से भरा पवित्र जल का तेज प्रवाह बह उठा, रथ जाकर वहां रुका जहाँ आज पूर्वोत्तर में यानी बंगाल में गंगासागर है और वहाँ जाकर गंगा समुद्र में मिल गई, सगर के पुत्रों का उद्धार हुआ और भारतवासियों को एक अपूर्व नदी मिल गई गंगा। 

              अगर हम इसे राजवंश द्वारा बढ़ती जनसंख्या के दवाब एवं आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित जीवन व्यवस्था को सुगम बनाने का एक प्रयास हो, जिसका विचार किसी आकाल से या अपने पुत्र समान प्रजा की हजारों की संख्या की मृत्यु के उपरांत तत्कालीन राजवंश के राजा सगर के दिमाग में आया हो, जिसने आने वाली पीढ़ियों के

जीवन के लिए जल और खेती हेतु यह लोमहर्षक संकल्प लिया हो, जिसको सगर के सभी उत्तराधिकारियों ने गंगा का प्रवाह मार्ग यानी हिमालय की उपत्यका से लेकर गंगा सागर तक बनाया होगा और इसमें लगी मेहनत का अंदाज राजस्थान की बीकानेर नहर बनाने वाले जान सकते हैं, काम अब पूर्ण करना ही है, इस संकल्प सगर के दसवीं पीढ़ी के भगीरथ ने कर लिया और अपना जीवन उस महान कार्य मे आहूत कर दिया। 

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            शिव और उनकी जटाओं में गंगा का अवतरण  या तो भगीरथ के प्रयासों को दैवीय विराटता देने के इरादे से उनकी प्रयासों के साथ जोड़ दिया गया, या देव-असुर, यक्ष-किन्नर-गन्धर्व काल की अर्थात भारतवर्ष के इतिहास की ज्ञात अज्ञात गाथा के साथ इसे जोड़कर पूरी तरह से पौराणिक रूप दे दिया गया। परन्तु इतना तय है कि गंगा के प्रवाह मार्ग का अधिकांश भगीरथ ने ही पूर्ण करवाया होगा,

गंगा को उस मार्ग पर प्रवाहित होने की समस्त रुकावटें बाधाए भगीरथ ने ही खत्म की और जब सब सम्पन्न हो गया, और हर अवरोधक हटाकर गंगा के बहने का मार्ग प्रशस्त हुआ तो क्या आश्चर्य बल्कि ऐसा ही हुआ होगा कि आगे आगे आप्तकाम और प्रसन्नवदन भगीरथ का रथ दौड़ रहा होगा और पीछे पीछे गंगा हिमालय की तराई से गंगा सागर तक का लंबा रास्ता लगातार भगीरथ के दौड़ते ( रुकने का कोई प्रश्न नही, जिस प्रयास में दस पीढ़ी खप गई ) रथ ने कितने दिनों में पूर्ण किया होगा, इसकी कल्पना क्या कोई भी कर सकता है

इस घटना के बाद हमारे साहित्य में गंगा का खूब वर्णन प्रारम्भ हो जाता है, वेद में भी, रामायण में भी, और रामायण के बाद लिखी महाभारत में भी बेशक वैदिक ऋषियों की ने उस महती ऐतिहासिक घटना उनकी तरफ न गई हो, परन्तु जिस तरह इस घटना में भगीरथ की तपस्या को और शिव के जटाजूट में गंगा अवतरण के साथ जोड़ा गया है, इससे स्पष्ट है कि कृतज्ञ देश के भगीरथ को उसके विपुल प्रयासों को किस प्रकार सिर माथे पर बिठाया है, इसके बाद तो गंगा हमारा जीवन रस बन गई, गंगा-यमुना संगम प्रकृति का चमत्कार वरदान बन गया।

गंगा किनारे तीर्थो और मंदिरों का उद्भव होने लग गया और इन सबके ऊपर विराजमान हुई वाराणसी नगरी जिसे बाबा विश्वनाथ के नाम से ख्यात शिव नगरी माना जाता है, हरद्वार ( हरिद्वार नही ) जिसे हर यानी शिव की प्राप्ति का द्वार मानकर तमाम भारत के लोग मृतकों की अस्थियों को जिसमें प्रवाहित करतें है, करना चाहते है, ऐसी गंगा के जल को हर जीवित भारतीय अपने पास रखना चाहता है और मरणोन्मुख भारतीय अंतिम सांस लेने से पहले अपने कंठ में उतारना चाहता है, तो भगीरथ के प्रयास को इससे बड़ी और सतत राष्ट्रीय श्रद्धांजलि भला कुछ और हो सकती है ।

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– शिवकुमार सिंह कौशिकेय 

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